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घर से भाग कर हरिद्वार यात्रा

 स्थान हरिद्वार

तिथि तो याद नही वर्ष 1996 याद है वो भी इस वजह से कि क्लास याद है






तस्वीर हरिद्वार की है, ये हमने तब ली जब हम कक्षा 11वीं में पढ़ा करते थे , घर पर बिना बताये निकल लिए थे

दूसरी तस्सवीर मे सफ़ेद प्रिंटेड शर्ट में मैं हूँ और चश्मे वाला मेरा दोस्त हरीश, और मित्र रोहित फोटो ले रहा है, पार्श्व दृश्य हरिद्वार का है,
हम सरकारी स्कूल के उन लौंडे में से थे जिन्हें स्कूल के भीतर चारदीवारी में मिलने वाली शिक्षा किसी काम की नही है इस बात का पूरा यकीन था, उन दिनों मास्टरों का प्रेम डंडे के द्वारा प्रगट होता था, या यूं कह लो कि मास्टर स्वयं को किसी थाने के एस. एच. ओ. से कम नही समझता था उसका मुख्य काम अध्यापन नहीं छात्रों को पीटना था ।
मुर्गा बनना, डंडा, घूंसे, थप्पड़ इन सब की अवांछित ट्रेनिंग लेने के पश्चात, हमने खुद को इस ट्रेनिंग से खुद को अलग किया और सोच लिया कि अब नही पिटेंगे, वैसे हमें पहले ही ज्ञान की प्राप्ति हो गई की की असली शिक्षा प्रकृति के सानिध्य में रहकर मिलती है तो इसलिए हम लोग स्कूल में कभी रुका नहीं करते थे बुद्धा ने भी क्या ज्ञान की खोज की होगी, जो उस समय हमने की, पहले पीरियड में अटेंडेंस लगवाई और प्रथम तल की छत से कूदकर निकल जाते थे व्यावहारिक ज्ञान की प्राप्ति की खोज में, कभी पार्क तो कभी किसी सिनेमा हॉल,

किसी भी बस में चढ़ जाते, बस कंडेक्टर बोलता टिकट तो आग्नेय द्रष्टि से उसकी तरफ देखते जैसे उसने वर्दी पहने लड़कों से टिकट मांग कर कोई जघन्य अपराध कर दिया है, फिर अकड़ कर बोलते "स्टाफ" (स्टाफ चला कर दिल्ली की बसों से जो जबरदस्त घुमक्कड़ी की उसकी कहानी फिर कभी विस्तार से), बाकी उस समय सिनेमा हॉल हम मूवी देखने नही जाते थे वो बारहवीं में शुरू हुआ अभी तो केवल पिक्चर हॉल के बाहर जाकर खड़े हो जाना और बड़े बड़े पोस्टर्स को निहारना, फिर हॉल परिसर के अंदर जाकर दीवारों पर लकड़ी के बने फ़ोटो कवर के कांच के अंदर फ़िल्म के फोटो देख, ऐसा आनंद आता था जो अब आई मैक्स में फ़िल्म देखने पर नही आता ,

इस कार्यक्रम के बाद आस पास के एरिया में ही कोई सड़क छाप दुकान से एक या दो रुपये के फिल्मों के छोटे छोटे ताश के पत्ते से भी होते फिल्मों के प्रिंटेड सीन मिला करते थे वो ख़रीद कर लाये जाते थे , आज अनायास ही लिखते हुए वो सब छोटे छोटे फ़ोटो दिमाग मे फिर से आ गए । उसके बाद जाकर कहीं घर जाते थे , स्कूल में सख्ती बढ़ जाती, कोई प्रिंसिपल छुट्टी के समय भी हाजिरी सिस्टम लागू कर देता, जो कि कुछ ही दिन चलता था, तो वापसी में भी स्कूल जाना पड़ता था, फिर लास्ट पीरियड में अटेंडेंस लगवा कर आया जाता था , बहुत परिश्रम था साहब, ……

अब हुआ वही जो कभी तो होना था, कहानी सही चल रही है तो मजा ही क्या जब तक उसमे विलेन न हो, कुछ ड्रामा न क्रिएट हो, तो हमारे इन छोटी घुमक्कड़ी टूर के बारे में घर पर पता चल गया, शाम को घर पहुंचे तो एक अलग सी खामोशी थी, तूफान आने से पहले की शांति, मुझे तो लगा कोई रिश्तेदारी में स्वर्ग सिधार गया है तभी चुप्पी है, इधर माता ने सवाल दाग ही दिया , कहाँ से आ रहा है?, मैने प्रत्युत्तर दिया "स्कूल से" फिर उसके बाद कोई सवाल नही , पानी के पाइप का शरीर पर तड़ातड़ पड़ना याद है, कुछ आवाजे आ रही थी 'फिल्मे देखेगा, यही करेगा," समझ गया आज किसी अड़ोसी पड़ोसी ने देख लिया और चुगली लगा दी है, खैर कुछ किया नही जा सकता था,

उस दिन सोच ब इस घर का खाना नही खाऊंगा, पर शाम होते होते ये प्रण हवा हो गया, रसोई में जा के जो मिला कहा लिया, बालमन का क्रोध दूध के उफान की भांति होता है, खैर बात आई गई हो गई , आधा दिन लगा के टाइम टेबल बने दीवार पर चिपके, अगले ही दिन टाइम अलग टेबल अलग,

अगले कुछ दिन स्कूल से सीधा घर, स्कूल में ही गोष्ठियां आयोजित हुईं, एक दिन गोष्ठी जमी हुई थी, बालकों की बातों में दुनियां का कोई भी विषय केंद्र हो सकता था, वहां कोई सीमा नही होती, पर प्रायः फिल्मे, हीरो वैगरह जैसे प्रचलित विषय पर गूढ़ वार्तालाप अधिक हुआ करते थे, तभी एक लंबा लड़का इस गोष्ठी में अमेरिका की भांति प्रवेश करता है, और आते ही कहता है हरिद्वार चलना है? उसके इस प्रश्न से सभी के मुंह उसकी तरफ मुड़ गए, और उसका चेहरा ताकने लगे, हरिद्वार मतलब दूसरे राज्य, मतलब बहुत दूर वो भी बिना घरवालों के , उसके प्रति हमारे सभी के मन मे इज्जत श्रद्धा का भाव था, वो इसलिए क्योंकि वो पहले भी घर से दो बार भाग चुका था, और उसके भागने और घूमने के किस्से अतिश्योक्ति अलंकार के साथ हमने आंखे चौड़ा के तन्मयता के साथ सुने थे, वो पुनः बोला "चलना है, तो बताओ", अब गोष्ठी में जो इसका उत्तर नही देगा नही चलेगा उसको तो लुलु का खिताब मिल ही जाना था, तो मैंने तो पूछ ही लिया, "कैसे जाएंगे , कब" पूछने का साफ मतलब था कि मैं चलूंगा। उसने जवाब दिया "शाहदरा स्टेशन से ट्रेन में बैठेंगे 40 रुपये की टिकट है सुबह सवेरे पहुंचेंगे नहाएंगे और फिर ट्रेन से ही लौट आएंगे " बड़ा सरल प्लान उसने सरल शब्दों में कह दिया, घुमक्कड़ी का कीड़ा पहली बार अच्छे से कुलबुलाया। मैंने मन बना लिया, कि मैं जाऊंगा चाहे जो हो, साथ मे एक और दोस्त भी तैयार हो गया, हरीश ने कहा "तौलिया रख लेना, और कुछ खाने को ले लेंगे" स्कूल का बैग खाली किया गया, किताब कोपियाँ सब बाहर, एक जोड़ी कपड़े, और तौलिया रख लिया गया। स्टेशन पर जाने से पहले दुकान से ब्रेड के दो पैकेट खरीद लिए गए, और साथ मे कुछ 10 , 10 रुपये के नमकीन के पैकेट….बाकी की कहानी अगले भाग में ….आगे के भाग में घर से भाग कर कैसे हरिद्वार पहुंचे, क्या किया , वापसी में क्या हुआ, वो सब

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