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घर से भाग कर हरिद्वार यात्रा पार्ट २

 यायावरी हरिद्वार कथा भाग दो :-






पहले यदि आपने अगर पहले पढ़ा हो तो पता ही होगा, वरना संक्षिप्त में बता देता हूँ कि हम तीन मित्र ग्याहरवी कक्षा में पढने वाले घर पर बिना बताये दिल्ली से हरिद्वार चले आये थे ट्रेन पकड़ कर...
दूसरा भाग विलम्ब से आने के लिए क्षमा, पहला भाग फटाफट लिख दिया, लेकिन दूसरे भाग में इतनी देरी क्यों हुई ? लिखा ही नहीं जा रहा था | न लिखे जाने का कारण ये कि, हरिद्वार से ट्रेन पकड़ने का याद है, लेकिन ट्रेन कितने बजे पकड़ी, कब पहुंचे ये विस्मृत हो चुका है, धड़क धडक भागती ट्रेन में दरवाजे पर खड़े होकर पटरियों को देखना और गुजरते शहरों और उन शहरो के लोगो को पीछे भागते देखना याद है और साथ ही ये याद है कि ट्रेन में थोड़ी ब्रेड नमकीन खाई थी |
और फिर मैं स्वयं को सीधा गंगा जी के घाट पर पा रहा हूँ, सूर्य देवता अच्छे से आसमान में विराजमान, और हम लोग घाट पर स्नान कर रहे हैं, तीनों दोस्तों के बस्ते घाट की सीढ़ियों पर और हम गंगा जी में, और फुल मस्ती चल रही है, दिल्ली के लोगो को नदी के नाम पर काला नाला ही मिला हुआ है तो जहाँ साफ़ पानी मिलता है, वहां हम अच्छे से डूबकते हैं| तो वहां भी यही हुआ हम पानी में जाते, अच्छे से डुबकियाँ लगाते पानी ठंडा था तो शरीर में जैसे ही कँपकँपी छूटती, बाहर आ जाते और फिर धूप सेंकते, धूप से शरीर गरम होता तो फिर से गंगा जी में घुस जाते |
ये तो पता था कि गंगा में स्नान करने से पाप धुल जाते हैं, तो आज तक जितने भी स्कूल क्लास से गुटली मारी, बेंचो, दीवारों पर चित्र बनाए, मेरी ड्राइंग अच्छी थी तो हर अध्यापक का कार्टून बनाने का जिम्मा मेरा ही था, उस हिसाब से मेरे हिस्से पाप भी ज्यादा आ रहे थे और ये सारे पाप हमें आज ही धो कर जाना था, आखिर एग्जाम भी आ रहे थे, वहां टीचर का नहीं भगवान का आशीर्वाद मिल जाए उनकी कृपा हो जाये, तो पास हो ही जायेंगे, कृपा न हो तो भी चलेगा लेकिन कोई गलत काम करके उनके कोप का भाजन न बन जाएँ, इस बात का डर भी था और इस बात में पूरा विश्वास कि भगवान को रुष्ट किया, तो हो लिए पास, फिर तुम चाहे जो कर लो और यदि भगवान् प्रसन्न है तो उसका फल मिलता है भाई, सेण्टर अच्छे स्कूल में जाता है, (हमारे लिए अच्छे से मतलब जहाँ नक़ल बेंच पर सामने रख कर चलती हो) और फर्रे चल जातें है, नक़ल ले जाने पर टीचर पकड़ नहीं पाता, ये सब ईश्वर की कृपा से ही संभव हो सकता था, तो उन्हें अप्रसन्न करने का रिस्क लेने का मतलब ही नहीं था, परीक्षा शब्द सुनने मात्र से देवताओं तक का हर्दय भी तेज धड़कने लगता है, तो हमारी तो बिसात क्या |
इस गंगा स्नान से पिछले तो पिछले, मुझे तो लग रहा है भविष्य के भी पापों का निबटारा भी हम इसी यात्रा में करना चाह रहे थे, खैर गंगा स्नान की ये प्रक्रिया हमने तब तक दोहराई जब तक हम लोगों कि नाक कि खाल न जल गई, जब एक दूसरे की लाल लाल नाक देखी, और खूब हँसे तब जा कर हमने गंगा स्नान को विराम दिया| घुमक्कड़ों में सभी को पता होगा कि पानी में रहने और तैरने के बाद बड़े जोर की भूख लगती है तो हम तीनो दोस्त चल पड़े हरिद्वार के बाजार में, क्योंकि ब्रेड के साथ की नमकीन तो हमने ट्रेन में ही समाप्त कर दी थी, जबकि ब्रेड अभी बची हुई थी, कोशिश तो की थी पर सूखी ब्रेड खाने में मजा नहीं आया, तो ब्रेड के बीच में कुछ लगा ले ये सोच के घाट से बाजार की तरफ ऊँचे नीचे रस्ते पर बढ चले |
वहां हमने एक ६५ से ८० वर्ष के बीच मैले कुचैले सफ़ेद धोती कुर्ता पहने एक फैट फ्री वृद्द को सर पर पतीला रखे, और बगल में सरकंडो वाला खोमचा, बड़ी सी थाल जिस पर करीने से निम्बू और हरी मिर्ची सजी थी पर रखा एक पतीला रखा, ले जाते देखा | समझ गए बाबा चाट बेच रहे हैं, बाबा से फिर भी पूछ भी लिया बाबा क्या बेच रहे हो तो बाबा ने अपनी छोटी आँखों को मिचमिचाते हुए जवाब दिया “चाट“, तो तीनो दोस्तों ने सहमति की और विचार बना कि चलो चाट ले ली जाए और उसे ब्रेड के बीच लगा कर खा लेंगे, नमकीन से तो ज्यादा अच्छा स्वाद आएगा, सूखा सूखा नमकीन और ब्रेड खा कर गला सूख चुका था, तो बाबा से दस रूपये की चाट देने के लिए कहा | बाबा ने स्लो मोशन में खोमचा नीचे रखा और उस पर थाली पतीला सेट किया और चाट बनानी शुरू की | खोमचे के भीतर खोंसे हुए हरे ताजे पत्तों में से दो तीन पत्ते निकाल कर अच्छे से ऐसे सेट किये कि अच्छा खासा दोना बन गया | लकड़ी का बना हुआ देसी चमचा और उससे पतीले से चाट की पहली सामग्री निकाल कर हरे पत्तो के दोने में रख दी, ये “दाल” थी, जहाँ तक मुझे याद है कि शायद “धुली मुंग की उबली दाल वो भी घुटी हुई“, फिर उसमे खुट्टल से चाकू की सहायता से हरी मिर्च, और टमाटर के कुछ टुकड़े डाल दिए और एक डिब्बे से नमक और दूसरे से कुछ काला मसाला उसके ऊपर छिड़क दिया अंत में निम्बू का रस | और वो दोना हमारी तरफ बढ़ा दिया, अब हम एक दूसरे का मुह देखे, ये कैसी चाट है, हरे पत्ते पर रखी धुली मुंग की उबली दाल, अब चाट हमने ये ले तो ली, लेकिन उस समय एक तो हमारा लड़कपन और दूसरा हम दिल्ली से | हमने हमेशा खाई थी सरकारी स्कूलों के बाहर खड़े ठेलों पर बिकने वाले चटपटे मटरा छोले, जिन्हें वो ठेले वाला दो ब्रेड स्लाइस के बीच में लगा छोले पीस के नाम से पांच रूपये का बेचा करता था | उस समय बाबा की बनाई उस चाट का पत्ता देख हमें ऐसा प्रतीत हुआ कि भाई हम लूट गए, दूसरे शहर में चाट बोल के उबली दाल पकड़ा दी गई है, बाबा को तो कुछ नहीं कहा आखिर पास भी होना था ईश्वर कि कृपा से| खैर हिम्मत कर के ब्रेड के एक टुकड़े से हमने उस चाट को खाया, और नाक भों सिकोड़ कर उसे खतम किया |
जो फीलिंग उस समय आई थी, वो दिमाग में बस गई तभी आज तक वो बात इतने अच्छे से याद है, पर आज जब उस बात को मैं याद करता हूँ तो उस दाल की चाट का एक अलग स्वरूप सामने आता है, हरिद्वार की घाट के किनारों गलियों से गुजरते हुए पैसठ या सत्तर वर्षीय पतले दुबले बाबा, मैली हल्का पीलापन लिए धोती जो कभी शुद्ध सफ़ेद रही होगी और धोती की तुलना में कम मैला सफ़ेद कुर्ता पहने, सर पर कपडे की बनी हुई इन्डली पर रखा हुआ, निम्बू और हरी मिर्चों से सजा हुआ थाल और पीतल का पतीला ,सरकंडो का खोमचा, पहाड़ के किसी पेड़ से तोड़े हरे हरे ताजे पत्तों में परोसी सौंधी धुली उबली मूंग की दाल की वो चाट, आज मैं मिस कर रहा हूँ, उस स्वाद को आज भी याद करने का प्रयास करता हूँ, मेरी आँखे और मेरा अवचेतन मन उस चाट को आज भी ढूंढ़ता है, उस चाट में वो बाबा भी समावेशित हैं, बाबा की उम्र तब ही इतनी थी कि आज उनका जीवित मिलना तो असंभव है पर फिर भी न जाने क्यों मेरी आँखे हर खोमचे वाले में आज भी उन बाबा को ढूंढ़ती है, और न जाने कितनी घुमक्कड़ी कर आया हूँ पर वो चाट अब कहीं नहीं मिलती |
पोस्ट में संलग्न फोटो उसी समय की है मित्र हरीश ने न जाने किस जुगाड़ा से एक चाइनीज फ़ोन लिया था उसी से हमने ये फोटो ली थी
अभी समाप्त नहीं हुआ है ... हरिद्वार में ये यायावरी आगे भी जारी रहेगी, भाग तीन में ...

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