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तोता घाटी में उड़े तोते | दिल्ली से रुद्रप्रयाग पांच सौ रूपये में

 तोता घाटी में उड़े तोते

निकला तो था दिल्ली से सिर्फ हरिद्वार तक की साइकल यात्रा के लिए,
लेकिन जैसे ही हरिद्वार पहुँच कर गंगा जी के हिम चिल जल में स्नान किया, इस द्रवित बर्फ ने कंप्यूटर के रिबूट बटन का सा काम किया, शरीर और मन की सारी इन्द्रियाँ रिफ्रेश, पूरा शरीर और अंतर्मन में मानो नया ऑपरेटिंग सिस्टम डल गया हो...
सोचा और आगे बढ़ा जाए, समय की कोई दिक्कत नहीं, पैसा के मामले में दांत और आंत भींच और खींच कर खर्च करेंगे, रोड पर सो लेंगे, सब्जी फल खा कर काम चला लेंगे, तो चल दिए देव प्रयाग की तरफ
ऋषिकेश 5 से दस मिनट रुक आगे बढे तो ब्यासी तक तो उछलते कूदते पहुंचा, पर कौड़ियाला से होते हुए तोता घाटी तक पहुँचते पहुँचते मेरे तोते उड़ गए, साइकल को पहाड़ी चढ़ाई पर चलाने में जो कुत्ते फेल हुए तो मन में पछतावा हुआ कि घर ही चलना चाहिए था वापस, गलत किया बे तू, 83 किलोमीटर का पहाड़ी सफ़र और ये बारह किलोमीटर की खड़ी चढाई जहाँ पैदल चलना मुश्किल था वहां वजन से लदी साइकल चलाना
पर तभी एक साधू बाबा साइकल पर आते हुए दिख गए, अकेले होता हूँ तो कभी रेस्ट नहीं करता, चाहे धीरे धीरे साइकल चला लूं पर रुकता नहीं, मेरे विश्राम के एक तरीका है कोई मिल जाए, कोई कुछ पूछने लगे, कोई ऐसी जगह मिल जाए जहाँ फोटो खींचने का मन करे, बस यही मेरा विश्राम होता है,
कोई मिल जाए तो वही मेल मिलाप और विश्राम दोनों हो ही जाता है, तो अभी तो सामने से विश्राम आता दिख रहा था और उत्सुकता तो थी ही साइकल वाले बाबा से मिलने की
काला रंग, मैले कुचैले कपडे, साइकल पर एक डोल जिसे उन्होंने कमंडल कहा, और पीछे करियर पर बिस्तरा, और हवा भरने का पम्प, दाढ़ी मुछ, सर पर जटाएं, गेरुया वस्त्र, माथे से पसीना बह कर बनी सूखे नमक की धारियां, बाबाजी साक्षात् महाकाल प्रतीत हो रहे थे
उनसे बात की तो पता चला वो कई बार चार धाम यात्रा कई बार बद्रीनाथ कर चुके है साइकल से, और अभी धारी देवी से आ रहे हैं, बात चीत का सिलसिला जैसे ही कमजोर पड़ा तो उन्होंने एक वाक्य बोल दिया “क्या सेवा की जाए?”
यहाँ मैं चौक गया! ये तो मेरा संवाद होना चाहिए था!, सेवा तो मैं करता रूपये धेले दक्षिणा से,
उन्होंने ये क्यों कहा! अब इसका पर्याय तो मैंने बाद में यही निकाला कि वो मुझे किसी प्रकार का नशा गांजा या चरस आदि ऑफर कर रहे थे .. पर अपन ठहरे सूफी आदमी बोले “बस महाराज आपसे मिल लिए यही बहुत है”
कहकर बाबाजी को बीस रूपये दक्षिणा दे, हम अपने रास्ते चल दिए
वैसे ये नशा पानी वाली बात सिर्फ मेरा अनुमान है, मैंने उस संवाद के बाद कोई खोदा खादी नहीं की, जिस गली जाना नहीं उसकी क्या बात करनी
खैर रोम रोम की ताकत लगा लुगु कर मैं देव प्रयाग तो पहुँच ही गया, अलकनंदा और भागीरथी के संगम देवप्रयाग, अत्यंत मनोरम द्रश्य था दोनों नदियों के संगम का, दो नदियाँ न होकर दो सखियाँ नृत्य करती लग रही थी, एक गौरा एक श्यामा,


आगे का कार्यक्रम मन में ये था कि रात यहाँ बिताएंगे, मित्र के लिए यहाँ से गंगाजल लेना है और .. फिर फिर फिर ... कुछ समझ नहीं आ रहा था...
रात को एक शेल्टर में बिताई, जहाँ कुछ साधू कुछ शैतान (नशेडी लोग) भी थे, उनमे से एक साधू बाबा ने पूछा “कहाँ जा रहे हो?” तो न जाने कैसे बस मुहं से निकला
“धारी देवी”
यहाँ तक तो मन भ्रमित था, पर रात को साधू बाबा को बोलने के बाद किसी प्रकार का संशय भ्रम नहीं रहा था, अब ये था कि मैं धारी देवी जा रहा हूँ,
वैसे देव प्रयाग से धारी देवी का रास्ता ऋषिकेश से देव प्रयाग के रास्ते की तुलना में काफी आसान था, ये बात रास्ते में मिलने वाले हर व्यक्ति ने कही, उनका सभी का पर्याय था कि हाथी निकल चुका है पूँछ ही बाकी बची है...
पर थकान काफी हो रखी थी, तो पैडल मारते साइकल को खींचते खांचते पहुँच ही गया गंतव्य पर, बीच में जो जो मनोरम द्रश्य आये, खासकर पहाड़ों तले नदी के तट, वो रेत के किनारे, वो अद्भुत थे



मंदिर दर्शन आदि के बाद वहां एक आश्रम में रुक गया, एक दिन रेस्ट के बाद अब तो कोई मन में बात नहीं थी निकला था हरिद्वार को और धारी देवी आ चुका था तो अब तो घर ही जाना था नो डाउट |
संध्याकाळ में आश्रम के महंत जी से बात हुई, कुछ आश्रम के बारे में पूछा, कुछ जीवन के बारे में और कुछ अपने बारे में बताया ...
फिर महंत जी ने प्रश्न किया “कहाँ जा रहे हो ..”
मैंने कहा “जी पीछे वापस”
उन्होंने कहा “पीछे क्यों जाना, जाना है तो आगे बढ़ो”
शिव भक्त तुम हो ही, तो कोटेश्वर महादेव जाओ, शिव के दर्शन करो
“पीछे क्यों जाना, आगे बढ़ो”
इस वाक्य ने मेरे सारे विचार बदल दिए और अगली सुबह मैं कोटेश्वर महादेव रुद्रप्रयाग के लिए प्रस्थान कर गया ...



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