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दिलो को जोड़ते खुद टूटते, दिल्ली के ये पुल

यमुना का वाटर लेवल खतरे के निशान के पार चले जाने और आगे और भी ज्यादा बढ़ने की सम्भावना को देखते हुए प्रशासन ने मंगलवार से लोहे के पुल से ट्रेनों की आवाजाही को, और नीचे वाहनों की आवाजाही को भी अस्थायी रूप से रोक दिया गया और हमें मिल गया मौका दिल्ली में पुल की कथा बांचने का 





पीपे का पुल (पंटून पुल) वो पुल, जिससे होकर दिल्ली से रुखसत हुए बहादुर शाह जफर


यमुना के किनारे बसी दिल्ली के पुलों की कई कहानियां है। अब दिल्ली में यमुना नदी है तो पुल भी बनते ही । इन्ही पुलों के बनने बिगड़ने से बनी ये कहानियां, पुलों से पहले लोग नाव के सहारे यमुना पार किया करते थे, आबादी बढ़ी, तकनीक बढ़ी तो लाल किले के पीछे यमुना पर लोहे का पुल बना। हालांकि इससे पहले भी एक पुल था, जी हां पंटून पुल। लोहे के बड़े बड़े खोखले ड्रमों को नदी में बहा कर उन पर अस्थाई पुल बनाया गया था, काफी लम्बे समय तक ये पुल चले लगभग दो तीन साल पहले ही इनका चलन दिल्ली में बंद हुआ, इन पंटून पुल के अवशेष अभी भी गढ़ी मेंदू के जंगल में पड़े हुए हैं , तो अब आते है लोहे के पुल पर उस समय की बात है जब मेरठ में क्रांति का बिगुल बज चुका था। विद्रोह में खुद को हारते देख भारतीय सैनिक दिल्ली की तरफ कूच कर गए और यमुना नदी पर लाल किले के पीछे बना पीपे का पुल (पांटुन पुल) पार कर गए। माना जाता है कि इस लिंक को सबसे पहले जहांगीर ने बनवाया था और बाद में आखिरी मुगल शासक बहादुर शाह जफर ने इसका पुनर्निर्माण कराया। अब दिल्ली में क्रांतिकारियों को हराकर राजधानी पर कब्जे के लिए अंग्रेजों को मुश्किल हो रही थी। उन्होंने पुल को नष्ट करने का फैसला किया जिससे पूरब से आने वाले सिपाहियों को दिल्ली पहुंचने से रोका जा सके। 







मश्क और इश्क  

82 वर्ष के बुजुर्ग शासक बहादुर शाह जफर को दिल्ली से इश्क था पर वे  इस खौफ में थे कि अंग्रेज पकड़ने के बाद उन्हें मार देंगे, तो वो 7 अक्टूबर 1858 को एक बैलगाड़ी से बहादुर शाह जफर भी इसी पुल से होकर दिल्ली से निकल कर भागे |


 

उस समय के ब्रिटिश आर्मी अफसर चार्ल्स जॉन ग्रिफिथ्स ने इस घटना को पंक्तिबद्ध किया है। ग्रिफिथ्स लिखते हैं कि 5 अगस्त 1857 को पुल उड़ाने की जिम्मेदारी इंजीनियरों को सौंपी गई। नदी में विस्फोटक के जरिए पुल को उड़ाने की कोशिश नाकाम रही। क्रांतिकारियों ने मशक (भेड़ की खाल से बना पानी का बैग) से आग बुझा दी। 


वह पीपे का पुल खड़ा रहा काफी लम्बे समय तक पूर्वी दिल्ली से जोड़ने वाला यह इकलौता पुल बना रहा। बाद में अंग्रेजो ने इसी जगह पर लोहे का पुल बनाया 







दास्तां लोहे के पुल की


डबल मंजिल मतलब ऊपर रेल नीचे सड़क पर बैलगाड़ी चलने वाला ये  रेल-रोड ब्रिज (लोहे का पुल) या पुराना यमुना ब्रिज 1863 में बनना शुरू हुआ। इसके बनने से पहले तक लाहौर और कलकत्ता से दिल्ली आने वाले लोग नावों में बैठकर यमुना पार करते थे। पुल बनने के बाद रेल ट्रैफिक बढ़ता गया। शुरुआत में किले के पीछे पुल बनाने का विरोध हुआ था। रेल ट्रैफिक बढ़ने पर 1913 में ब्रिज का एक्सपेंशन हुआ। अंग्रेजों ने यमुना पर दूसरा लिंक नहीं बनाया। आजादी के बाद नदी पर दूसरे ब्रिज के बारे में सोचा गया। 







कई बाढ़ झेला, पर खड़ा रहा लोहा पुल


ईस्ट इंडिया रेलवे कंपनी को तब करीब 13 करोड़ रुपये का खर्च आया था। शुरू में यह सिंगल रेलवे लाइन थी, जिसे 1913 में डबल लाइन में बदला गया। इस पुल में लगी लोहे के गार्डरों को प्री-कास्ट कर इंग्लैंड से लाकर इसे जोड़कर पुल बनाया गया था। 2011-12 में इस पुल की मरम्मत की गई थी इस मरम्मत में 240 टन लोहे का प्रयोग हुआ । यह ब्रिज कई बाढ़ झेल चुका है, जिसमें से 1978 की वह भयंकर बाढ़ भी है जिसने शहर के अधिकांश हिस्से को डुबो दिया था। आज भी इस लोहे के पुल पर ट्रेन के पहुंचते ही यूपीवाले तैयार हो जाते हैं कि दिल्ली अब दूर नहीं है। ऐसा ही एक लोहे का पुल इलाहाबाद में भी है  जो इसकी कृति है|




दिल्ली-हावड़ा के बीच  चलने वाली ट्रेन की जिम्मेदारी लोहे के पुल अपने मजबूत कंधों संभाली हुई है, यह सबसे व्यस्त रूट है। रोज 200 से ज्यादा यात्री ट्रेनें और मालगाड़ियां इस पुल से गुजरती हैं। शायद ऐसे ही किसी पुल के पास खड़े होकर दुष्यंत कुमार के मन में वो लाइनें उमड़ी होंगी।


“तू किसी रेल सी गुज़रती है मैं किसी पुल सा थरथराता हूं”


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