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क़ुली खान का मक़बरा है या ये कह लें कि मेटकॉफ का "आराम घर "

 पिछली बार हम अजीम खान के मक़बरे गए थे उससे जरा आगे कुछ दूर चलो तो एक मस्जिद आती है, मस्जिद से बाहर आकर ऊँट की तरह मुंह उठाकर खड़े हो जाओ और चारों तरफ घूम जाओ , देखो कहीं कुछ रह तो नहीं गया ? आपको एक गोल गोल सी संरचना और उसके पास एक छोटा महल सा दिखाई देगा ! ये जो छोटा सा महल है ये क़ुली खान का मक़बरा है या ये कह लें कि मेटकॉफ का "आराम घर " है ! अब ये क़ुली खान कौन था ? यहां क्यों आया ? और ये मेटकॉफ कौन था , यहां भारत में क्या बेचने आया था

आइये थोड़ा इतिहास में चलते हैं :
अकबर से आप सब भलीभांति परिचित हैं , अकबर की परवरिश की थी महम अंगा ने , तो महम अंगा उसकी सौतेली माँ जैसी हो गयी (समझ रहे हैं न आप) , और इसी महम अंगा के दो बेटे थे ! एक अधम खान और दूसरा कुली खान ! आदम खान का तो बहुत कुछ मिलता है लेकिन कुली खान का ज्यादा इतिहास नहीं मिल पाता पढ़ने को ! वैसे भी "छोटे लोगों " की कहानियां कौन लिखता है ?
मेटकॉफ , अंतिम मुग़ल शासक बहादुर शाह ज़फर के समय में ब्रिटिश का गवर्नर जनरल रहा था , जिसे दिल्ली के सिविल लाइन में रहने को बंगला दिया गया था लेकिन उसे अपनी छुट्टियां बिताने के लिए खूबसूरत जगह की तलाश थी और उसकी ये तलाश रुकी कुली खान के इस octagonal मकबरे पर, जिसे उसने 1830 ईसवी में "दिलखुशा " नाम दिया ! दिलखुशा मतलब "दिल की ख़ुशी " ( “delight of the heart,”) ! इस जगह को चुनने की सबसे बड़ी वजह ये थी कि यहां से सामने ही क़ुतुब मीनार का शानदार द्रश्य दिखाई देता था ! आज भी दिखाई देता है लेकिन शायद पोल्लुशन ने कुछ तो असर डाला ही है , अन्यथा आप वहां खड़े होकर कल्पना कर सकते हैं कि कितना शानदार नजारा होता होगा ! वैसे एक बात है , जितनी मौज राजा महाराजों , सुल्तानों की रही है हर युग में वो बड़े नसीब से मिलती है ! इन अंग्रेजों को सर्दी के लिए अलग घर चाहिए होता था गर्मी के लिए अलग ! जब मेटकॉफ दिलखुशा में नही होता था तब वो इस घर को हनीमून कपल्स को किराए पर दे देता था !
अब हमने इस मकबरे के सामने बने एक और इमारत की दीवार में पुराने किसी इमारत के अवशेष देखे फोटो हम डाल रहे हैं हमे तो किसी देवी देवता की आकृति लगी, बात विवादास्पद हो सकती है तो निर्णय आप ले , संभव तो है कि मुगलकालीन ये इमारत किसी अन्य इमारत को तोड़ कर उनके अवशेषों से बनी हो क्योंकि इस तरह की देवी या मानव आकृति इस्लामिक इमारत में बनवाना तो इस्लाम के हिसाब से जायज नहीं क्योंकि वे मूर्ति पूजा नही करते
इस दिलकुशा के पास ही एक गोल सा कुछ बना है , लेकिन मुझे उसके विषय में कोई जानकारी नहीं है ! वो भी किसी ने ऐवें ही बनवा दिया होगा और अब हम जैसे फ़ालतू के लोग ये पता लगाते फिर रहे हैं कि ये किसने बनवाया , कब बनवाया , क्यों बनवाया ? लगे रहो ! मैं तो चलता हूँ वापस अपने घर ! शाम होने को है और अभी ईस्ट दिल्ली पहुँचने में एक डेढ़ घंटा लग ही जायेगा ! महरौली की कथा ख़त्म होती है !
चलो मिलते हैं जल्दी ही एक और इंटरेस्टिंग कहानी लेकर ! तब तक कुछ फोटो भी देखते जाइये :




















 








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